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PAPER ID:IJIM/V.5(XII)/38-48/5
Author Dr. Ritu
Title: महादेवी वर्मा: सृजनात्मक साहित्य में संस्कृति
Abstract किसी भी जाति की विचार-सरण, भाव-पद्धति, जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण, उसके समस्त मूल्य संस्कृति से ही प्रसूत होते है। जैसे एक व्यक्ति को पूर्णतया जानने के लिये उसके रूप, रंग आकार, बोलचाल, विचार आचरण आदि से परिचित होना आवश्यक1 होता है वैसे ही किसी जाति की संस्कृति को मूलतः समझने के लिये उसके विकास की सभी दिशाओं का ज्ञान अनिवार्य है। किसी मनुष्य समूह के साहित्य कला, दर्शन अदि के संचित ज्ञान और भाव का ऐश्वर्य ही उसकी संस्कृति का परिचायक नहीं उस समूह के प्रत्येक व्यक्ति का साधारण शिष्टाचार भी उसका परिाचय देने में समर्थ है। संस्कृति शब्द संस्कृत भाष के ‘सम्’ उपसर्ग तथा ‘कृ’ धातु के संयोग से निष्पन्न हुआ है। जिसका व्युत्पत्तिपरक अर्थ है – भूषणभूत सम्यक् कृति। अर्थात भूषणभूत सम्यक कृति या चेष्टा ही संस्कृति कही जा सकती है।2 परंतु इसका सामान्य अर्थ परिष्करण या परिमार्जन की क्रिया अथवा सम्यक रूपेण निर्माण है। डा. प्रसन्नकुमार मानते है कि इस में परिमार्जन या परिष्कार के अतिरिक्त शिष्टता एवं सौजन्य के भावों का भी समावेश हो जाता है।3 डाॅ. गुलाब राय भी इसका अर्थ संशोधन करना, उत्तम बनाना, परिष्कार करना ही मानते है। वे इसका सम्बन्ध संस्कारों से बताते हुये जातीय संस्कारों को ही संस्कृति कहते है।4 परंतु दिनकर जी के अनुसार संस्कृति जिंदगी का एक तरीका है और यह तरीकासदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते है।5 इन्द्र विद्यावाचस्पति ने इसे और स्पष्ट करते हुये लिखा है किसी देश की आध्यत्मिक, सामाजिक और मानसिक विभूति को उस देश की संस्कृति कहते है। संस्कृति शब्द में देश के धर्म, साहित्य, रीति रिवाज, परम्पराओं, सामाजिक संगठनों आदि सब आध्यात्मिक ओर मानसिक तत्वों का समावेश होता है। पंत जी भी मानते है कि संस्कृति के भीतर अध्यात्म धर्म नीति से लेकर सामाजिक रूढ़ि रीति तथा व्यवहारों का सौंदर्य सब सम्मिलित है।6
Keywords: ऐष्वर्य, परिमार्जन, भूषणभूत सम्यक कृति, रीति रिवाज, शिष्टाचार
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